खबरी गुल्लक।।( 21नवंबर 2024) सम्पूर्ण धरातल पर कुछ पवनें निरन्तर एक ही दिशा में चलती रहती हैं। हालांकि नियत दिशा जरूर होती है परंतु गति में क्षेत्रीय और स्थानीय व्यवधानों के कारण इनकी गति बदलती रहती है। कहीं कहीं इनकी गति मंद होती है तो कहीं प्रचंड भी हो जाती है। स्थानीय व्यवधानों, नमी की वृद्धि और तापान्तर जैसे घटक इनमें पर्याप्त हलचल पैदा करते हैं जो भारी वर्षा, बवंडर, तीव्र मेघनाद और ठोस वर्षण जैसे मौसम को जन्म देते हैं। इन पवनों को स्थायी पवन कहा जाता है। पछुआ या वेस्टरलीज तथा व्यापारी या ट्रेड विंड आदि गोलार्द्धों में चलने वाली स्थायी पवन हैं। दोनों गोलार्द्धों में 30 से 35° अक्षांश की पट्टी अमूमन मौसमी व्यवधानों के लिहाज से शांत पट्टी होती है। इसी तरह की मौसमी विशेषता की दूसरी पट्टी दोनों गोलार्द्धों में 60 से 65° के बीच मिलती है। परंतु 30 - 35° से 60 - 65° के अक्षांशों के बीच के भूभागों में हमें विभिन्न प्रकार की मौसमी घटनाएं देखने को मिलती हैं। इस क्षेत्र में मूलतः पूर्व से पश्चिम की ओर स्थायी पवनें हमेशा चलती रहती हैं। इन पवनों को ही वेस्टरलीज या पछुआ पवन कहा जाता है। हालांकि ये हवाएं सीधे पूर्व से पश्चिम को नहीं चलतीं, उत्तरी गोलार्ध में इनकी दिशा 30 – 35° की उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब क्षेत्र से 60 – 65° वाली उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पट्टी की ओर दक्षिण – पश्चिम से उत्तर - पूर्व की ओर विचलन के साथ जबकि दक्षिणी गोलार्ध में यही उत्तर – पश्चिम दक्षिण – पूर्व की ओर झुकाव के साथ चलती हैं। वायु राशियों में इस झुकाव या विचलन को फेरल के सिद्धांतों का अनुशरण करके समझा जा सकता है। फेरल ने अपने लंबे अध्ययन के बाद निष्कर्ष प्रतिपादित किया कि उत्तरी गोलार्ध में हवाएं पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हुई अपने दाएं और दक्षिणी गोलार्ध में अपने बाएँ ओर मुड़ जाती हैं। इस विचलन का मुख्य कारक बल पृथ्वी की विषुवत रेखा पर उतपन्न होने वाली कोरियोलिस बल है। दोनों गोलार्ध में उप ध्रुवीय क्षेत्र की ओर जाने वाली ये हवाएं विभिन्न मौसमी घटनाओं को जन्म देती हुई उप ध्रुवीय क्षेत्रों में जहां विषुवत रेखा से आने वाली गर्म और धुर्वीय क्षेत्र से आने वाली ठंडी वायु राशियां मिलती हैं वहां चक्रवाती फ्रंट का निर्माण करती हैं।
समुद्री वायु प्रवाह की गति, उसके मार्ग में आने वाले व्यवधानों या कहें तो घर्षण से नियंत्रित होती है। जैसे समुद्र से उठा तूफान जब आगे बढ़ता है तब समुद्री क्षेत्रों में गति तेज और प्रचंड होती है। परंतु किसी भूमि क्षेत्र में प्रवेश करने के साथ ही उसकी तीव्रता तेजी से कम होने लगती है। आप पाएंगे कि दक्षिणी गोलार्ध की तुलना में उत्तरी गोलार्ध में भूमि का हिस्सा अधिक है। पूरी पृथ्वी के भूमि का 68 प्रतिशत भाग उत्तरी गोलार्ध में है जबकि दक्षिणी गोलार्ध का मात्र 32 प्रतिशत भाग भूमि और शेष जल है। अर्थात दक्षिणी गोलार्ध में समुद्री वायु के निर्बाध प्रवाह की स्थिति उत्तरी गोलार्ध की तुलना में बेहद अनुकूल है। या यह कहें कि दक्षिणी गोलार्ध की पछुवा हवाएं अपने साथ भारी मात्रा में नमी लेकर उच्च वेग के साथ अग्रसर रहती हैं।
समुद्री व्यापारियों ने अपनी यात्राओं में अनुभव किया कि 40° अक्षांस से 60° अक्षांस के बीच शीत काल में बिना अवरोध के बहाने वाली पछुआ – व्यापारी हवाएं प्रचंड हो जाती हैं।ये हवाएं समुद्र से नमी ग्रहण करती हैं और वायुमंडल में संघनित हो कर समुद्र में ही भारी गर्जना के साथ भारी वर्षा करती हैं। दक्षिण की ओर मुड़ती हुई इन पिंडों की ऊर्जा व्यापक रूप से बढ़ती है जिससे ये तूफानी स्वरूप अख्तियार कर लेती हैं। 40° अक्षांस के पास इनमें गर्जन करने वाले बादलों की मात्रा अप्रत्याशित रूप से बढ़ती है और 40° अक्षांस के क्षेत्र में घनघोर गर्जना होती है। नाविकों ने 40° के अक्षांसिय क्षेत्र की इसी मौसमी घटना को गर्जन चालीसा ( roaring forties) का नाम दिया है। गर्जन चालीसा क्षेत्र की हवाएं दक्षिण की ओर विचलित होती हुई जब 50° के अक्षांसिय क्षेत्र में पहुंचती है तो इनका चक्रवाती स्वरूप और गर्जना कुछ कम हो जाती है। 50° पर पहुंचे इस मौसमी विक्षोभ को नाविकों ने नाम दिया है प्रचंड पचासा ( furious fifties)। और ये पिंड जब अपने मार्ग से विचलित हो कर 60° के अक्षांसिय क्षेत्र में प्रवेश करती हैं तो इनकी तीव्रता काफी हद तक क्षीण ही जाती है। यहां इसे चीखता साठा (shriecking sixties) कहा जाता है।
- अक्षय मोहन भट्ट
वरिष्ठ मौसम वैज्ञानिक, अंबिकापुर






